प्राइड कैसे हुआ डिसाइड! प्वाइंट ऑफ व्यू को प्रोडक्ट बनाना कहीं पेड न्यूज़ तो नही

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प्राइड कैसे हुआ डिसाइड! प्वाइंट ऑफ व्यू को प्रोडक्ट बनाना कहीं पेड न्यूज़ तो नही

सरयूसुत मिश्र। देश के सबसे विश्वसनीय और नंबर-1  होने का दावा करने वाले अखबार की प्राईड आफ सेंट्रल इंडिया सीरीज सवालों के घेरे में है। प्राइड के चयन की प्रक्रिया सार्वजानिक न होने के कारण इसकी निष्पक्षता दिखाई नहीं देती। खुदको वास्तविक हकदार मानने वाले, सम्बंधित  केटेगरी के योग्य और प्राइड बनने से वंचित लोग और तार्किक पाठक इस सीरीज को, पेड न्यूज़ मानकर चल रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पेड न्यूज़ के तौर तरीकों को लेकर चल रही बहस में अखबार की प्राईड आफ सेंट्रल इंडिया सीरीज भी आ गई है। इस तरह की सीरीज़/ अवार्ड्स देश के अनेक छोटे बड़े  मीडिया समूह कन्डक्ट करते हैं। 





पत्रकारिता का ऐंसा स्वरूपः इसमें संदेह नहीं कि देश के सबसे विश्वसनीय और नंबर-1  होने का दावा करने वाले अखबार में जनसरोकारों से जुड़ी कुछ खबरों ने समाज शासन और प्रशासन की आँखें खोली हैं। इस अखबार में इन दिनों प्राईड आफ सेंट्रल इंडिया नाम से एक सीरीज भी प्रकाशित हो रही है। इस सीरीज में चुने गए लोगों को प्राइड बताते हुए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को इमेज बिल्डिंग के साथ सेंट्रल इंडिया का “प्राइड” निरूपित किया जाता है। इस पर सवाल उठे तो अखबार के पाठक होने के नाते प्राइड सीरीज के सिलेक्शन के क्राइटेरिया और कंटेंट पर ध्यान गया। इसे पढ़कर प्रथम दृष्टि में लगा कि ये “इंपैक्ट फीचर” या  “एडवर्टोरियल” होगा। लेकिन ध्यान से देखने पर पेज पर कहीं भी इंपैक्ट फीचर  दिखाई नहीं पड़ा। फिर लगा कि यह इंटरव्यू बेस्ड उपलब्धि का कंटेंट अखबार द्वारा ही तैयार किया गया है। अब पत्रकारीय मन ने प्राइड सीरीज को पत्रकारिता की नजर से देखना शुरू किया, तब लगा कि ऐसी पत्रकारिता का स्वरूप न पढ़ा था और न समझा। फिर ध्यान आया चुनाव  के समय पेड न्यूज की घटनाओं का। मध्यप्रदेश में ही एक चर्चित मामला प्रकाश में आया था, चुनाव आयोग के मुताबिक किसी उम्मीदवार के पक्ष में इस प्रकार प्रचार करना कि यह प्रचार भी समाचार अथवा आलेख जैसा प्रतीत हो पेड न्यूज़ कहलाता है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का मानना है कि ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नकद या किसी दूसरे फायदे के बदले प्रकाशित या प्रसारित की जा रही हो पेड न्यूज़ कहलाती हैं। 





मीडिया के जरिए भ्रष्टाचारः भारत में मीडिया पर खबरों के जरिए भ्रष्टाचार करने के आरोप काफी पुराने हैं। इस मामले में वर्ष 2010 में नीरा राडिया टेप मामला काफी चर्चा में रहा था। इससे खुलासा हुआ था कि धन के जरिए किस  तरह कुछ अखबारों और चैनलों में मनपसंद खबरें चलाने और छापने के निर्देश दिए जा रहे थे। इस बारे में कई बार मीडिया हाउस के स्टिंग ऑपरेशन भी हुए हैं। जिनमें पैसे के बदले मनमाफिक खबरें छापने के लिए मीडिया हाउस सहमत होते पाए गए थे। पेड न्यूज को चुनावी कदाचार माना जाता है। पेड न्यूज से पाठक को गलत सूचनाएं मिलती हैं। इससे पाठक भ्रमित और गुमराह होता है। इस प्रवृत्ति के कारण ही आम लोगों की जिंदगी की सही तस्वीर और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच फासला लम्बा होता जा रहा है। पेड न्यूज का इस्तेमाल सच पर पर्दा डालने के हथियार के रूप में होता रहा है।





प्राइड सीरीज के कंटेंट की सत्यता के लिए जिम्मेदार कौनः “प्राइड आफ सेंट्रल इंडिया” सीरीज में सिलेक्टेड प्राइड किस आधार पर डिसाइड हुए हैं? क्या इसके लिए कोई पारदर्शी प्रक्रिया, मापदंड निर्धारित किए गए थे। सार्वजनिक सूचना प्रकाशित कर आवेदन बुलाए गए थे। क्या प्राइड अवार्ड में स्थान प्राप्त करने वाले का आपराधिक रिकॉर्ड देखा जाता है? प्राइड सीरीज के कंटेंट की सत्यता या असत्यता के लिए कौन जिम्मेदार है? जब इसे इंपैक्ट फीचर या एडवर्टोरियल नहीं बताया गया है, इसे समाचार के रूप में चुना और छापा गया है तो निश्चित ही कंटेंट की सच्चाई के लिए अखबार ही जिम्मेदार होगा। प्राइड सीरीज में कलेक्टर बड़वानी को भी प्राइड के रूप में चुनते हुए, उनके महान जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रकाशित किया गया है।





पॉइंट ऑफ व्यू या पेड न्यूजः सरकारी अधिकारी के लिए मीडिया में सेल्फ प्रमोशन, कंडक्ट रूल में प्रतिबंधित है, फिर भी कलेक्टर साहब के शुरुआती संघर्ष को इस ढंग से बताया गया है कि जैसे वह सरकारी नौकर नहीं एक सोशल नायक हैं। कुछ महीनों पहले इन्हीं कलेक्टर साहब  के मातहत तैनात एक युवा आईएएस अफसर ने कलेक्टर साहब की खासियत बताई थी, जो विश्वसनीय नंबर वन अखबार में भी प्रकाशित हुई थी। इन आरोपों में जो कुछ कहा गया था उसकी सत्यता की सरकार ने तो जांच नहीं कराई थी, लेकिन प्राइड के रूप में चुनते समय शायद नंबर वन अखबार ने जरूर जांची होगी। यहां यह भी सवाल  उठता है कि प्रदेश के सभी जिलों के कलेक्टरों के संघर्ष और व्यक्तित्व को आंका गया होगा। फिर उसमें से बड़वानी कलेक्टर चुने गए होंगे। सिलेक्शन के लिए मापदंड और कोई निष्पक्ष समिति रही होगी। मीडिया हाउस को पाठकों की इस जिज्ञासा का  समाधान करना ही होगा कि सिलेक्शन प्रक्रिया और क्राइटेरिया क्या है? हमारा मतलब प्राइड में सिलेक्टेड किसी भी व्यक्ति पर सवाल उठाना नहीं है? बल्कि सच्ची खबरों के हकदार पाठक के अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठाना है। बिना किसी प्रक्रिया, मापदंड या निष्पक्षता के साथ चयन किए हुए किसी को प्राइड बनाकर उनकी गौरव गाथा पढ़ने  के लिए पाठकों को मजबूर करना क्या उनके साथ अन्याय नहीं है? अगर प्रक्रिया की है तो मीडिया हाउस उसे सार्वजनिक करे। अखबार एक पॉइंट ऑफ़ व्यू सामने रखता है। पॉइंट ऑफ़ व्यू प्रोडक्ट बनाने की कोशिशें पेड न्यूज़ को जन्म देती हैं इस सीरीज के साथ शायद यही हुआ है। 





मीडिया की विश्चसनीयता सवालों के घेरे मेंः चुनाव में पेड न्यूज की निगरानी के लिए चुनाव आयोग ने विधिवत व्यवस्था की है। चुनाव के अलावा सोशल और मार्केटिंग क्षेत्र में पत्रकारिता को अर्थकारिता के रूप में पेड न्यूज़ के चलन की शिकायत करने के लिए कोई संस्थागत व्यवस्था अभी नहीं है। पब्लिक से जुड़े सभी संस्थानों में शिकायतों के लिए लोकपाल की व्यवस्था है। मीडिया के क्षेत्र में भी  हम लोकपाल की व्यवस्था क्यों नहीं कर सकते? सही खबरें जानने के पाठक के अधिकार की रक्षा कैसे होगी? कोई पाठक मेनेज्ड  खबरों की शिकायत करना चाहे तो उसके पास कौन सा फोरम है? आज मीडिया की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। भारत का मीडिया बुरी तरह से विभाजित है। आज मीडिया सेकुलर, कम्युनल, गोदी मीडिया(पॉलिटिकली एफिलेटेड) पेडी मीडिया(पैड न्यूज़) एडी मीडिया(ओनली फॉर एडवरटाइजमेंट) पोटी मीडिया(पूंजीवादी) फेकू मीडिया (फेक न्यूज़) और सोशल मीडिया(ओपन अनकंट्रोल्ड मीडिया) हर रोज अपने अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पाठक सभी प्रकार की मीडिया के जींस को उजागर कर रहे हैं। मीडिया के लोग ही एक दूसरे की सच्चाई बेनकाब कर रहे हैं। यूट्यूब और सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर पत्रकारों और पत्रकारिता को बेनकाब करने के भरपूर कंटेंट मौजूद हैं। एक दूसरे के खिलाफ यह अभियान पत्रकारिता के हमाम में सभी को नंगा दिखा रहा है।





मीडिया को टेकन फॉर ग्रांटेड न लेंः जहां से बात शुरू हुयी थी पाठकों की दृष्टि से सेंट्रल इंडिया प्राइड सीरीज पेड न्यूज़ ही लगती है। पाठकों को “टेकन फॉर ग्रांटेड” किसी भी मीडिया को नहीं लेना चाहिए। एक दौर था जब भोपाल के एक अखबार की पाठकों में प्रतिष्ठा थी। हर दिन अखबार मालिक के फोटो पहले पेज पर छपते थे। वह भले ही राज्यसभा में चले गए हो लेकिन पाठक भी अखबार छोड़ कर चले गए। सबसे विश्वसनीय और नंबर वन अखबार के पाठकों के साथ एक और अन्याय हो रहा है। सरकारी विज्ञापन सूचनाओं से इस अखबार के पाठकों को वंचित किया जा रहा है। अखबार और सरकार के बीच गतिरोध हो सकता है इसमें पाठक का क्या अपराध है? करोड़ों पाठकों को सरकारी विज्ञापन की सूचनाएं नहीं मिलने की परिस्थितियों को डेमोक्रेटिक तो नहीं कहा जा सकता।





निर्धारित नीति की जरूरतः समाज में अच्छा काम करने वाले होते हैं इसमें व्यवसायिक सफलता बहुत मायने नहीं रखती। इंपैक्ट फीचर आम बात है लेकिन विज्ञापन न्यूज़ फॉर्मेट में स्वीकार नहीं हो सकता। ऐसी पेड न्यूज़ अखबारों की विश्वसनीयता को रसातल में पहुंचाने का काम करती हैं। उम्मीद है दावे के अनुरूप एक नंबर अखबार अपनी विश्वसनीयता को अर्थकारिता से ऊपर रखेगी। पाठकों के विश्वास और पत्रकारिता के मूल्यों को इतिहास नहीं बनने देगी। ये सिर्फ एक अखबार का मामला नहीं है ऐसा अनेक प्रतिष्ठित मीडिया समूह करते दिखाई देते हैं इसलिए इस पर व्यापक बहस और स्वनिर्धारित नीति कि ज़रूरत दिखाई पड़ रही है।



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